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श्री प. प. श्री वासुदेवानंद सरस्वती टेंबे स्वामी महाराज व श्री प. प. श्रीलोकनाथतीर्थ स्वामी महाराज स्मारक ट्रस्ट, पुणे

सिद्धयोग

लेखक: प.प. श्री शंकर पुरुषोत्तम तीर्थ स्वामी महाराज

एक समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माने देवादिदेव महादेवसे प्रश्‍न किया –

सर्वे जीवाः सुखैदुःखैर्मायाजालेन वेष्टिताः ।
तेषां मुक्ति कथं देव कृपया वद शक्कर ॥
सर्वसिद्धीकरं मार्ग मायाजालनिकृन्तनम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिनाशनं सुखदं वद ॥
(योगशिखोपनिषद् 1/1-2)

‘हे शंकर! सब जीव सुख-दुःखरूप मायाजालमें घिरे हुए हैं। हे देव! कृपया मुझसे यह कहिये कि इनकी मुक्ति किस प्रकार हो सकती है। ऐसा एक उपाय बतलाइये जिससे सब सिद्धियाँ प्राप्त हो, मायाजाल कट जाय और मृत्यु, जरा तथा व्याधिका नाश हो जाय।’इसके उत्तर मे भगवान् महादेवने विष्णूके नाभिकमल से उत्पन्न ब्रह्मा को कहा –

नानामार्गैस्तु दुष्प्राप्यं कैवल्यं परमं पदम् ।
सिद्धमार्गेण लभते नान्यथा परमसम्भव ॥
(योगशिखोपनिषद 1/3-4)

‘हे परमसम्भव! कैवल्यरूप परमपदकी प्राप्तिके अनेक उपाय कहे गये है, किन्तु उन समस्त उपयोंसे उसे प्राप्त करना सहज नहीं। एकमात्र सिद्धिमार्गके द्वाराही कैवल्यपद आसानीसे प्राप्त होता है। अन्य प्रकारसे नही प्राप्त होगा।’ कैवल्य प्राप्ति ही मानव-जीवनका उद्देश्य है। कैवल्य मुक्ति होनेपर ही दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति होती है। दुःख नष्ट हो जानेपर पुनः उसकी उत्पत्ति न होनेको ही दुःखकी आत्यन्तिक निवृत्ति कहते है। कैवल्य वा मोक्ष प्राप्त होनेपर जीवको पुनः जन्म-मृत्यू-जरा-व्याधि जीनत दुःख नहीं भोग करना पडता। इसे प्राप्त करनेका सहज पथ सिद्धिमार्ग का सिद्धयोग है।

यह सिद्धयोग क्या है, यहाँ इस बातका विशदरूपसे वर्णन करना आवश्यक है। जिस पथसे बिना कष्ट के योग प्राप्त होता है, उसी पथको सिद्धिमार्ग कहते है। योगरूप सिद्धि प्राप्त करनेका पथ सुषुम्ना नाडी है; जब इस नाडीसे प्राणवायु प्रवाहित होकर ब्रह्मरन्ध्रमें जाकर स्थित होता है, तब साधकको जीव-ब्रह्मैक्य ज्ञानरूप योग प्राप्त होता है। सर्वप्रथम गुरूद्वारा शक्तिका संचार होनेपर कुण्डलिनी शक्ति जागरित होती है; और उसके बाद क्रमोन्नतिके द्वारा योगलाभ होता है। जिस तरह तुम्हें बरतन, लकड़ी, जल और अग्नि इत्यादि किसी चीजको परिश्रम करके जुटाना नहीं पडता, केवल दाताकी कृपासे ही उसके घरमे तैयार अन्नसे ही तुम्हारी क्षुधा शान्त हो जाती है; उसी तरह तुम्हें परिश्रम करके सब योगोंकी आधारस्वरूपा मूलाधारस्थिता कुण्डलिनी शक्तिको जागरित करनेके लिये योगशास्त्रोक्त आसन, मुद्रा और प्राणायामादि कुछ भी अस्वाभाविक ढंगसे अनुष्ठान करने की जरूरत नहीं, केवल गुरुशक्तिके प्रभावसे ही कुण्डलिनी-शक्तिके जागरित हो जानेसे स्वाभाविक रूपमें योगमार्ग प्राप्त हो जाता है। इसी को ‘सहज कर्म’ कहा गया है। स्वभावसे जो होता है, वही वास्तवमें सहज है। स्वाभाविक और अस्वाभाविक भेदसे योगपथ दो प्रकारका है। उनमे अस्वाभाविक उपाय उत्पन्न कष्टसाध्य तथा विघ्नसंकुल है। स्वाभाविकसे विपरीत ही अस्वाभाविक है। जो स्वाभाविक है, अर्थात् जो स्वभावतः होता है, वही अनायाससाध्य और सुखद है। तथा उसमें किसी तरहकी विपत्तिकी भी सम्भावना नही। देखो, जब स्वभावतः हमें निद्रा, क्षुधा और मलमूत्रादिक का वेग होता है तब सो जाने, भोजन कर लेने और मलमूत्रादि त्याग देनेसे शारीरिक स्वस्थता तथा मानसिक आनन्द का अनुभव होता है। किन्तु निद्राको इच्छा न मालूम होनेपर भी जबर्दस्ती सो रहनेसे सुषुप्तिके स्थानमें स्वप्न आया करता है और उससे शारीरिक और मानसिक अस्वस्थताका अनुभव होता है। भूख नहीं है, ङ्गिर भी भोजन कर लिया, तो उससे अजीर्णतादि दोषके कारण शरीरमें रोग होनेकी सम्भावना रहती है। भूख न रहनेपर भोजन करनेसे वह उतना रुचिकर भी नहीं मालूम होता। मल का वेग नहीं हुआ, ङ्गिर भी काँखकर मल त्याग किया, इससे भविष्यमें गुह्य रोगोंके उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है; किन्तु वेग होने के बाद मल त्याग करनेपर शारीरिक और मानसिक आराम मालूम होता है। उसी तरह अन्तःकरणमें स्वाभाविकरूपसे आसन, मुद्रा और प्राणायामादि करनेकी इच्छा होनेपर और उसके अनुसार क्रिया करनेपर वह सहज और शान्तिप्रद हो जाती है। स्वभावसे ही जो हो जाता है, उससे बाधा डालनेपर बल्कि अनिष्टको सम्भावना रहती है। जैसे, शोकमें जिस समय रुलाई आती है, उस समय उसमें बाधा उपस्थित होनेपर हृदयमें भयानक चोट लगती है; किन्तु रो लेनेपर शरीर और मन हल्का मालूम होता है। मलमूत्रादिका वेग होनेपर उसे रोक लेनेसे दुःख होता है और रोग उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है; किन्तु उसका त्याग करते ही आराम मिलता है। उसी तरह गुरुशक्तिके प्रभावसे स्वभावतः जो आसन, मुद्रा और प्राणायाम आदि तथा नाना प्रकारसे अंगसंचालन आदि करनेकी इच्छा होती है, उसमे उस समय बाधा डालनेपर मानसिक अशान्ति मालूम होती है और शरीरको भी अच्छा नहीं मालूम होता।

जिस तरह वायु, पित्त और कङ्ग इन तीनों के स्वभावमें विषमता होनेपर वैद्यके पास जाना पडता है और वैद्यके बतलाये हुए औषध, पथ्यका व्यवहार करके स्वभावकी सहायता करनेपर शरीर स्वभावतः ही निरोग हो जाता है, उसी तरह सद्गुरूकी कृपासे शक्तिसंचारके द्वारा सिद्धमार्ग प्राप्त होनेपर एकमात्र गुरूपादिष्ट मन्त्रजप, या ध्यानके द्वारा ही स्वभावतः आसन, मुद्रा, प्राणायाम, प्रत्त्याहार, धारणा और ध्यान इत्यादि सब योगाङ्ग अनायास हो जाते है, इसके लिये विशेष परिश्रम करने या चेष्टा करनेकी आवश्यकता नहीं होती, अथवा गुरूसे इन सब आसन, मुद्रा और प्राणायाम आदिका स्वतन्त्ररूपसे उपदेश लेनेकी भी जरूरत नहीं होती।

इसी पथसे क्रमशः अग्रेसर होते-होते साधक शीघ्र ही योगसिद्धि प्राप्त करके कृतार्थ और धन्य हो जाता है। इस उपायसे स्वभावतः योगाङ्गादि साधनक्रमसे जीव और ब्रह्मका ऐक्यज्ञान अथवा अखण्ड-चैतन्यानुभूति होती है और इसीको सिद्धिमार्ग या सिद्धयोग कहते है। परन्तु यह शक्तिसंपन्न सद्गुरूकी कृपा प्राप्त होनेपर ही सम्भव है।